कबीराची हिंदी रचना



(मात्रा -16,12)
                        साधो सहज समाधि भली।
गुरुप्रताप जहँ दिनसे जागी, दिन दिन अधिक चली।।1
जहँ जहँ डोलौ सो परिकरमा, जो कुछ करौं सो सेवा।
जब सोवौं तब करौं  दंडवत, पूझौ और न देवा।।2
कहों सो नाम,सुनौ सो सुमिरन, खावौ पिवौ सो पूजा।
गिरह उजाड एक सम लेखौं,भाव मिटावौं दूजा।।3
आँख न मूँदौ,कान न रूधौं, तनिक कष्ट न धारौ।
खुले नैन पहिचानो हँसि हँसि, संदर रूप नाहारौ।।4
सबद निंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।
ऊठत बैंठत कब हूँ न छूटै, ऐसी तारी लागी।।5
कह कबीर यह उनमिनि रहनी, सो परकट करि गाई।
दुख सुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।।6

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(मात्रा -16,12)
                      साधो, सुगम समाधि बरी!
गुरु करणीची जादु विलक्षण ।  प्रतिदिन रंगत न्यारी।।
कळे न मज परि काय जाहले ।  येता त्याची प्रचिती
सज्जन मी हो कैसे सांगू । सुख अनुपम मी भोगी।।
डोले मी जो परिक्रमा ती ।  बोलचि होय स्तुती
घडेल हातुन ती ती सेवा । झोप दंडवत पायी।।
पूजा नुरली आता मजला । देव दुजा ना नयनी
शब्द शब्द जिव्हा बोले ते । राम नाम सुखदायी।।
ऐके कानचि जे जे ते ते । ‘सुमिरन सुमिरन’ मजसी
खातो पीतो  तीची  पूजा ।  असे नित्य नेमाची।।
रम्य गिरी ओसाड रान वा । समान भासे दोन्ही
उरला नाही भेदभाव तो । मनात माझ्या काही।।
मिटणे डोळे, कानी बोळे ।  कष्ट जरा ना लागे
रूप हरीचे सुंदर पाही । हसत हसत नयनाने।।
नाम एक ते बसले चित्ती  मलिन वासना गेली
उठतो बसतो परि ना उतरे ।  लागे अशी समाधी।।
कबीर बोले ‘उन्मनि’ हीची । प्रकट आज झाली
सुख दुःखाच्या पलीकडे त्या । ‘परमपदी’ मी राही।।

(सुमिरन - नामस्मरण)

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